बीमार चाँद के गम में डूबी
उदास खामोश चाँदनी
रात की
संज्ञाहीन घुटन को चीरती
सीवन के
भूने तीखे धुएँ घोंटती
घबराई काँपती
तुम्हारी देहरी तक आ गई।
सुहागिन उठो
अपने अकामी संकल्पों से
उसका आँचल भरो
उसकी कोख पूजो।
बारहबरसी तुलसी व्रत पर किए
कच्ची मिट्टी का दीपदान
एक रसाज्जन पारता हुआ
राम कथा, दुर्गापूजा
और
जाने कितने
मनबोले दशहरे दीवाली पर
अपनी मधुर स्नेहिल लकीर खींचता हुआ
अभावों के महाशून्य में
धीरे-धीरे
एक रंग भर रहा है।
अमृत कन्याओं! उठो
सारी उपेक्षा दाह और कुंठाओं से हटकर
अपनी रंजित अंजलियों से
हाहाकार की प्यास भरो।
आग को आस्था
चाँदनी को विश्वास दो
और जलजलों को?
इन्हें फिलहाल
अपने रूप रस गंध का
अर्ध्य देकर मनाओ।
इस तरह
निरीह अज्ञानी दर्प को
इस बदपरहेज बदगुमाँ चाँद को
एक अवसर और दो।
सुहागिन उठो
उठो सुहागिन!